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Saturday, June 7, 2014

पागल बुढ़िया


एक बूढ़ी औरत फटे पुराने कपड़े पहने
बैठी थी मोहल्ले के एक चबूतरे पर
उसके सफेद पके बाल बिखरे हुए थे
चेहरे पर अनगिनत झुर्रियां थीं
वह बड़-बड़ा रही थी कुछ
गली के कुछ बच्चों ने उसे देखा
और मारने लगे पत्थर ये कहकर
देखो पागल बुढ़िया, देखो पागल बुढ़िया
बुढ़िया भागने लगी इधर-उधर
बच्चों से बचकर छुप गई एक घर के कोने में
लेकिन घर में रहने वाले लोगों ने भी उसे 
डंडा दिखाकर भगा दिया
वो जमीन पर बैठकर पास पड़े कूड़े में कुछ ढूंढने लगी
शायद भूख लग रही थी उसे बहुत तेज
तभी मिल गए उसे तरबूज के कुछ छिलके
जिसे खोद-खोदकर खाने लगी वो
मोहल्ले के कुछ लोग असंवेदनशीलता की हदें पार कर
उसे यूं कूड़ा खाता देख हंस रहे थे उस पर 
न किसी की आंखों में दया थी और न ही मन में करुणा
चेहरे पर थे तो सिर्फ उपेक्षा और उपहास
के भाव
शायद यही हमारे अत्याधुनिक और 
तेजी से विकसित होते समाज की
पहली निशानी थी।

11 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. आधुनिकता ने कई खूबियों के साथ संवेदनहीनता हो भी बढ़ाया है इसमें कोई संशय नहीं.

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  4. आप सबका बहुत आभार।।

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  5. oh bahut marmik ...... yah vidambana hai hamare samaj ki

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  6. मार्मिक चित्रण।

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  7. सच है.... आधुनिकता स्वयं में कोइ बुरी वस्तु नहीं है ..यह अत्यावश्यक व अवश्यम्भावी है , यह विकास है ...परन्तु अति-भौतिकता की अंधी दौड़ ...समाज में संवेदनहीनता लाती है .....

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  8. आधुनिकता की दौड़ में संवेदनशीलता बहुत पीछे रह गयी है...मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...

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