गर्मी की भरी दुपहरी में
जब गांव की गलिया सो जाती थीं
आंधी जैसी लू से डरकर
चिड़ियां पत्तों में छुप जाती थीं
हमें सुलाने की कोशिश में
जब नानी खुद सो जाती थीं
हम धीरे से उठकर तब बाहर आते थे
आम के बाग की ओर तेज दौड़ लगाते थे
कभी डंडा तो कभी पत्थर
कच्चे आमों पर बरसाते थे
हमारी अनगिनत कोशिशों के बाद
जब कुछ आम टूटकर गिर जाते थे
उन्हें देखकर हम खुशी से फूले नहीं समाते थे
नमक-मिर्च लगाकर हम कच्चे आमों को खाते थे
हमें देखकर दूसरों के भी दांत खट्टे हो जाते थे
फिर खाते थे मम्मी की डांट
और दादी के ताने सुनते थे
आंखो में मोटे आंसू देखकर पापा हमें मनाते थे
अक्सर याद आती हैं बचपन की वे बातें
जब लाख डांट पड़ने पर भी हम
गलतियां दोहराते थे।