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पागल बुढ़िया

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एक बूढ़ी औरत फटे पुराने कपड़े पहने बैठी थी मोहल्ले के एक चबूतरे पर उसके सफेद पके बाल बिखरे हुए थे चेहरे पर अनगिनत झुर्रियां थीं वह बड़-बड़ा रही थी कुछ गली के कुछ बच्चों ने उसे देखा और मारने लगे पत्थर ये कहकर देखो पागल बुढ़िया, देखो पागल बुढ़िया बुढ़िया भागने लगी इधर-उधर बच्चों से बचकर छुप गई एक घर के कोने में लेकिन घर में रहने वाले लोगों ने भी उसे  डंडा दिखाकर भगा दिया वो जमीन पर बैठकर पास पड़े कूड़े में कुछ ढूंढने लगी शायद भूख लग रही थी उसे बहुत तेज तभी मिल गए उसे तरबूज के कुछ छिलके जिसे खोद-खोदकर खाने लगी वो मोहल्ले के कुछ लोग असंवेदनशीलता की हदें पार कर उसे यूं कूड़ा खाता देख हंस रहे थे उस पर  न किसी की आंखों में दया थी और न ही मन में करुणा चेहरे पर थे तो सिर्फ उपेक्षा और उपहास के भाव शायद यही हमारे अत्याधुनिक और  तेजी से विकसित होते समाज की पहली निशानी थी।