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Monday, March 2, 2015

तुम्हारी यादें

क्या करूं मैं तुम्हारी इन यादों का
तुमसे मिलकर जो आई मैं
बैग में चली आई हैं मेरे साथ
हर वक्त पास रहने की जिद करती हैं
कहीं भी जाऊं चल देती हैं उंगली पकड़कर
कभी डांट देती हूं मैं उन्हें सताने पर
तो शरारत भरी नजरों से मुस्कुरा देती हैं
तुम्हें सोचकर जो रोती हूं मैं कभी
तो गले लगाकर चुप कराती हैं
तुम्हारी खुशबू को
मेरी सांसों में महकाती हैं कभी
अपने नटखटपन पर इतराती हैं कभी
दर्द होने पर मेरा सिर भी
सहलाती हैं कभी
कभी छुप जाती हैं तकिए
के नीचे मुझे चिढ़ाने के लिए
तो सिरहाने बैठकर
रातभर बतियाती हैं कभी
अच्छा ही है जो चली आईं
हैं ये मेरे साथ
तुमसे दूर रहकर भी
नजदीकियों का अहसास
दिलाती हैं सभी