एक बूढ़ी औरत फटे पुराने कपड़े पहने
बैठी थी मोहल्ले के एक चबूतरे पर
उसके सफेद पके बाल बिखरे हुए थे
चेहरे पर अनगिनत झुर्रियां थीं
वह बड़-बड़ा रही थी कुछ
गली के कुछ बच्चों ने उसे देखा
और मारने लगे पत्थर ये कहकर
देखो पागल बुढ़िया, देखो पागल बुढ़िया
बुढ़िया भागने लगी इधर-उधर
बच्चों से बचकर छुप गई एक घर के कोने में
लेकिन घर में रहने वाले लोगों ने भी उसे
डंडा दिखाकर भगा दिया
वो जमीन पर बैठकर पास पड़े कूड़े में कुछ ढूंढने लगी
शायद भूख लग रही थी उसे बहुत तेज
तभी मिल गए उसे तरबूज के कुछ छिलके
जिसे खोद-खोदकर खाने लगी वो
मोहल्ले के कुछ लोग असंवेदनशीलता की हदें पार कर
उसे यूं कूड़ा खाता देख हंस रहे थे उस पर
न किसी की आंखों में दया थी और न ही मन में करुणा
चेहरे पर थे तो सिर्फ उपेक्षा और उपहास
के भाव
शायद यही हमारे अत्याधुनिक और
तेजी से विकसित होते समाज की
पहली निशानी थी।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
स्तब्ध ।
ReplyDeleteआधुनिकता ने कई खूबियों के साथ संवेदनहीनता हो भी बढ़ाया है इसमें कोई संशय नहीं.
ReplyDeleteआप सबका बहुत आभार।।
ReplyDeleteoh bahut marmik ...... yah vidambana hai hamare samaj ki
ReplyDeletethankyou
ReplyDeleteमार्मिक चित्रण।
ReplyDeleteसच है.... आधुनिकता स्वयं में कोइ बुरी वस्तु नहीं है ..यह अत्यावश्यक व अवश्यम्भावी है , यह विकास है ...परन्तु अति-भौतिकता की अंधी दौड़ ...समाज में संवेदनहीनता लाती है .....
ReplyDeleteआधुनिकता की दौड़ में संवेदनशीलता बहुत पीछे रह गयी है...मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत आभार
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