जब शाम ढले और रात चले
तुम मन मन्दिर में आ जाना
आकर के तुम उसमें बस
एक प्रेम का दीप जला जाना
जब अम्बर में बिखरे चांदनी
और तारों की बारात सजे
सिर मेरा गोद में रखकर तुम अपनी
मुझे प्रीत की लोरी सुना जाना
जब सुध-बुध अपनी मैं खोऊं
और गहरी नींद में मैं सोऊं
सुंदर रूप सलोना मुखड़ा
तुम ख्वाब में आकर दिखला जाना
सुबह जब सूरज सिर पे चढ़े
और चिड़ियों की चहचहाहट मन में घुले
तुम भीगी जुल्फों के छींटे बरसाकर
मुझे नींद से जगा जाना
एक प्रेम का दीप जला जाना।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (31-05-2014) को "पीर पिघलती है" (चर्चा मंच-1629) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका बहुत आभार...
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