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Showing posts from May, 2014

धान रोपती औरत

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कभी देखी है तुमने धान रोपती हुई औरत अपने बालों को कपड़े में लपेटकर साड़ी को घुटनों तक चढ़ाकर वो घुस जाती है पानी में और घंटों यूं ही उस पानी में खड़े रहकर रोपती रहती है धान खेत में भरे गंदे पानी से सड़ जाते हैं उसके हाथ और पैर कुछ जोंक भी चिपक जाती हैं उसके पैरों में और भी कई पानी के कीड़े जो चूसते रहते हैं उसका खून फिर भी धान रोपती औरतें अपने लक्ष्य से नहीं भटकतीं और चेहरे पर मुस्कान लिए गाती रहती हैं कजरी इतना दर्द सहने के बाद भी उनके चेहरे पर होती है एक खुशी खुशी इस बात की कि उनकी रोपी हुई फसल बड़ी होकर जब कटेगी तो इसी से उनका  घर चलेगा और खुशी इस बात की उनके धानों से मिलने वाले चावल से न जाने कितनों का पेट भरेगा।।

एक प्रेम का दीप जला जाना

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जब शाम ढले और रात चले तुम मन मन्दिर में आ जाना आकर के तुम उसमें बस एक प्रेम का दीप जला जाना जब अम्बर में बिखरे चांदनी और तारों की बारात सजे सिर मेरा गोद में रखकर तुम अपनी मुझे प्रीत की लोरी सुना जाना जब सुध-बुध अपनी मैं खोऊं और गहरी नींद में मैं सोऊं सुंदर रूप सलोना मुखड़ा तुम ख्वाब में आकर दिखला जाना सुबह जब सूरज सिर पे चढ़े और चिड़ियों की चहचहाहट मन में घुले तुम भीगी जुल्फों के छींटे बरसाकर मुझे नींद से जगा जाना एक प्रेम का दीप जला जाना।।

प्रेम प्रणय की बेला

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प्रेम प्रणय की इस बेला को जी भर कर जीना है अब तुझसे मिलन की उत्कंठा को अविरल जल सा बहना है अब गीत भी होगा रीत भी होगी मीत भी होगा प्रीत भी होगी हृदय में दबी अभिलाषाओं को इक चिड़िया सा उड़ना है अब मां-पापा के दिवा स्वप्न को पुल्कित होते सबके मन को स्वस्रेह से सींचना है अब तुझसे मुझको मुझसे तुझको पवित्र बंधन में बंधना है अब प्रेम प्रणय की इस बेला को जी भर का जीना है अब।।।

मजूदर औरत

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न हूं मैं गार्गी और न ही पद्मावती न मैं कल्पना चावला और न ही इंदिर नुई न हूं मैं झांसी की रानी और न ही विजयलक्ष्मी न मैं मैरी कॉम और न ही अरुंधती मैं हूं एक साधारण सी मजदूर औरत मेरे पास नहीं है रंगीन सपनों का आकाश और न ही नित नई उम्मीदों की जमीन मेरे पास नहीं हैं रुपये अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए हां मेरे पास आकाश है तेज धूप से भरा हुआ और जमीन भी है जिससे मिट्टी खोदकर मुझे छठी मंजिल तक ले जानी है मेरे पास रुपये भी हैं लेकिन अपने भूखे बच्चों का पेट भरने के लिए मुझे नहीं मिली इतनी शिक्षा की मैं सफलता की उड़ान भरूं लेकिन मेरे पास है मेरी मेहनत जिससे अपने बच्चों में अपने सपनों को जी सकूं।

बचपन की यादें

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गर्मी की भरी दुपहरी में जब गांव की गलिया सो जाती थीं आंधी जैसी लू से डरकर चिड़ियां पत्तों में छुप जाती थीं हमें सुलाने की कोशिश में जब नानी खुद सो जाती थीं हम धीरे से उठकर तब बाहर आते थे आम के बाग की ओर तेज दौड़ लगाते थे कभी डंडा तो कभी पत्थर कच्चे आमों पर बरसाते थे हमारी अनगिनत कोशिशों के बाद जब कुछ आम टूटकर गिर जाते थे उन्हें देखकर हम खुशी से फूले नहीं समाते थे नमक-मिर्च लगाकर हम कच्चे आमों को खाते थे हमें देखकर दूसरों के भी दांत खट्टे हो जाते थे फिर खाते थे मम्मी की डांट और दादी के ताने सुनते थे आंखो में मोटे आंसू देखकर पापा हमें मनाते थे अक्सर याद आती हैं बचपन की वे बातें जब लाख डांट पड़ने पर भी हम गलतियां दोहराते थे।