पिया से मिलन की आस में पथरा गए मोरे नैन
पिया न मिलन को आए मोहसे बीतीं जाने कितनी रैन
बीतीं जाने कितनी रैन कि न आया पिया का संदेशा
फंस गए होंगे किसी काम में हुआ दिल को ऐसा अंदेशा
इस अंदेशे में दिन काटे और काटीं कितनी रातें
अब तो करने लगीं हूं मैं खुद से ही खुद की बातें
बातें करते-करते हो जाती सुबह से शाम
दिन बीत जाता है पूरा पर न होता मुझसे कोई काम
सखियां कहते मुझसे तो हो गई है रे पागल
अंसुअन की धार में बहता तेरी आंखों का काजल
मैं कहती काजल का क्या है ये तो फिर से लग जाएगा
पिया न आए गर मोरे तो इन अंखियन को कुछ न भाएगा
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ReplyDeleteऋतुराज में आपने वियोग श्रृंगार का सुन्दर चित्रण किया है!
ReplyDeleteरविकर जी मैंने दोहा लिखने की कोशिश नहीं की है बस मन में जो आया लिख दिया। मन के भावों को व्यक्त करने के लिए उसे पाई और मात्राओं की क्लिष्टता में बांधना जरूरी तो नहीं। फिर भी आपने कहा है तो कोशिश जरूर करूंगी।
ReplyDeleteसादर
बहुत ही बढ़िया।
ReplyDelete'हलचल' का लोगो लगाने के लिए आपका आभारी हूँ।
सादर
विरह का रंग समेटे ... सुन्दर अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteये सुन्दर अभिव्यक्ति हैं!
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