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Tuesday, February 19, 2013

पथराए नैन


पिया से मिलन की आस में पथरा गए मोरे नैन
पिया न मिलन को आए मोहसे बीतीं जाने कितनी रैन
बीतीं जाने कितनी रैन कि न आया पिया का संदेशा
फंस गए होंगे किसी काम में हुआ दिल को ऐसा अंदेशा
इस अंदेशे में दिन काटे और काटीं कितनी रातें
अब तो करने लगीं हूं मैं खुद से ही खुद की बातें
बातें करते-करते हो जाती सुबह से शाम
दिन बीत जाता है पूरा पर न होता मुझसे कोई काम
सखियां कहते मुझसे तो हो गई है रे पागल
अंसुअन की धार में बहता तेरी आंखों का काजल
मैं कहती काजल का क्या है ये तो फिर से लग जाएगा
पिया न आए गर मोरे तो इन अंखियन को कुछ न भाएगा

6 comments:

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  2. ऋतुराज में आपने वियोग श्रृंगार का सुन्दर चित्रण किया है!

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  3. रविकर जी मैंने दोहा लिखने की कोशिश नहीं की है बस मन में जो आया लिख दिया। मन के भावों को व्यक्त करने के लिए उसे पाई और मात्राओं की क्लिष्टता में बांधना जरूरी तो नहीं। फिर भी आपने कहा है तो कोशिश जरूर करूंगी।
    सादर

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  4. बहुत ही बढ़िया।
    'हलचल' का लोगो लगाने के लिए आपका आभारी हूँ।


    सादर

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  5. विरह का रंग समेटे ... सुन्दर अभिव्यक्ति ....

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  6. ये सुन्दर अभिव्यक्ति हैं!

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