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तुम्हारी यादें

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क्या करूं मैं तुम्हारी इन यादों का तुमसे मिलकर जो आई मैं बैग में चली आई हैं मेरे साथ हर वक्त पास रहने की जिद करती हैं कहीं भी जाऊं चल देती हैं उंगली पकड़कर कभी डांट देती हूं मैं उन्हें सताने पर तो शरारत भरी नजरों से मुस्कुरा देती हैं तुम्हें सोचकर जो रोती हूं मैं कभी तो गले लगाकर चुप कराती हैं तुम्हारी खुशबू को मेरी सांसों में महकाती हैं कभी अपने नटखटपन पर इतराती हैं कभी दर्द होने पर मेरा सिर भी सहलाती हैं कभी कभी छुप जाती हैं तकिए के नीचे मुझे चिढ़ाने के लिए तो सिरहाने बैठकर रातभर बतियाती हैं कभी अच्छा ही है जो चली आईं हैं ये मेरे साथ तुमसे दूर रहकर भी नजदीकियों का अहसास दिलाती हैं सभी